परंपरा की आड़ में बाल विवाह कानूनन गलत



परंपरा की आड़ में बाल विवाह कानूनन गलत

बाल विवाह को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट राय देकर सभी समुदाय की नाबालिग लड़कियों की रक्षा की है है। धर्म, संस्कृति व परंपरा की आड़ में अनेक समुदाय अपनी नाबालिग लड़कियों की शादी कर देते हैं। उच्चतम न्यायालय ने दो टूक कहा है कि किसी 'पर्सनल लॉ' के तहत परंपराएं बाल विवाह निषेध अधिनियम के क्रियान्वयन में बाधा नहीं बन सकतीं और बचपन में कराए गए विवाह अपनी पसंद का जीवन साथी चुनने की स्वतंत्रता छीन लेते हैं। यूं तो सरकारी जागरूकता और कठोर कानून के चलते देश में बाल विवाह के मामलों में कमी आई है, लेकिन अभी कई समुदाय परंपरा की आड़ में इस कानून का उल्लंघन करते हैं। देश में वर्ष 1993 में बाल विवाह के मामले 49 फीसदी थे, जो वर्ष 2021 में घटकर 22 फीसदी रह गए, वर्तमान में यह 20 फीसदी के लगभग हैं। बाल विवाह की सबसे अधिक शिकार बालिकाएं बनती हैं। वर्ष 2006 में बालकों के बाल विवाह के केस 7 फीसदी थे, जो वर्ष 2021 में घटकर 2 फीसदी रह गए, अभी यह दो फीसदी से कम है। वर्ष 2005-2006 से 2015-2016 के बीच 18 साल से पहले शादी करने वाली लड़कियों की संख्या 47 फीसदी से घटकर 27 फीसदी रह गई, लेकिन आंकड़े फिर भी ज्यादा हैं। बाल विवाह के मामलों में सजा की दर सिर्फ़ 11 फीसदी है। नोबेल पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी ने वर्ष 2022 में बाल विवाह मुक्त भारत आंदोलन की शुरुआत की थी, इस आंदोलन का मकसद वर्ष 2030 तक देश से बाल विवाह खत्म करना है, लेकिन धर्म संस्कृति की आड़ में बाल विवाह होते रहने के चलते यह लक्ष्य मुश्किल लग रहा है। यूनिसेफ के आंकड़े के अनुसार, भारत में प्रत्येक वर्ष, 18 साल से कम उम्र में करीब 15 लाख लड़कियों की शादी होती है, जिसके कारण भारत में दुनिया की सबसे अधिक बाल वधुओं की संख्या है, जो विश्व की कुल संख्या का तीसरा भाग है। 15 से 19 वर्ष की उम्र की लगभग 16 प्रतिशत लड़कियां शादीशुदा हैं। यूनिसेफ के अनुसार किसी लड़की या लड़के की शादी 18 वर्ष की उम्र से पहले होना बाल विवाह कहलाता है। भारत के बाल विवाह निषेध अधिनियम 2006 के अनुसार विवाह के लिए एक लड़की की आयु 18 वर्ष और लड़के की आयु 21 वर्ष की होनी चाहिए। भारत में धार्मिक-सांस्कृतिक- सामाजिक परंपराएं, अशिक्षा, गरीबी, लैंगिक भेदभाव, सामाजिक दबाव, जागरूकता का अभाव, स्वास्थ्य जनित खतरे के बारे में नहीं पता होना, कानून के प्रति सम्मान का भाव नहीं होना, कानूनों के क्रियान्वयन में कमी आदि बाल विवाह के कारण हैं। बाल विवाह के स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं, शिक्षा में बाधा, घरेलू हिंसा का शिकार होना, गरीबी का दुष्चक्र आदि दुष्परिणाम होते हैं। ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय ने बाल विवाह को रोकने के लिए किसी भी पर्सनल लॉ को खारिज कर बाल विवाह रोकथाम कानून की श्रेष्ठता को स्थापित राहत दी है। अब जो लोग पर्सनल लॉ के नाम पर कानून का उल्लंघन कर रहे थे, वे ऐसा नहीं कर पाएंगे, कानून तोड़ेंगे तो कार्रवाई हो सकेगी। देश में हर समुदाय, समाज, धर्म व संस्कृति के लोगों के लिए बाल विवाह रोकने के कानून का पालन करना अनिवार्य है। केन्द्र सरकार ने भी उच्चतम न्यायालय से बाल विवाह निषेध अधिनियम (पीसीएमए) को 'पसर्नल लॉ' पर प्रभावी बनाए रखने का आग्रह किया था। सरकार, कानून, सामाजिक संगठन आदि सभी की चाहत है कि देश में बाल विवाह न हो, नाबालिगों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार न छीने

जाएं। बाल विवाह मुक्त समाज विकसित भारत के लक्ष्य के लिए भी जरूरी है।

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